उपन्यास >> दो आँखें दो आँखेंताराशंकर वन्द्योपाध्याय
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ताराशंकर वन्द्योपाध्याय की लेखन शैली में रोचक उपन्यास.......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय का जन्म 25 जुलाई, 1898 को पश्चिम बंगाल के
बीरभूम जिले के लाभपुर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हरिदास
वंद्योपाध्याय और माता का नाम श्रीमती प्रभावती देवी था। एक बहन और दो भाई
वाले अपने परिवार में वे सबसे बड़े थे।
ताराशंकर जब केवल आठ वर्ष के थे, तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माँ पटना के एक शिक्षित परिवार की थीं। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त गृहस्थी को इनकी माँ ने योग्यतापूर्वक बड़ी शालीनता से चलाया। इसका ताराशंकर पर बहुत अच्छा असर हुआ। वे अपनी माँ से वैसे प्रभावित थे। इधर ताराशंकर की बुआ अपने पति और पुत्र को एक साथ एक ही दिन खो देने की हृदय विदारक घटना के बाद अपने भाई के पास ही रहने लगी थीं। वे भी ताराशंकर को बहुत चाहती थीं। सही और गलत की गहरी सूझ-समझ और मूल्यों के उच्चतम मानदण्डों को अपनाने वाली परिवार की इन दोनों महिलाओं ने ताराशंकर के जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ताराशंकर के परिवार में धर्मपरायणता और परमात्मा में गहरा विश्वास था। अच्छाई और बुराई, सही और गलत को अच्छी तरह देखा और परखा जाता था। यहाँ अच्छाई-अच्छाई थी और बुराई-बुराई; सही-सही था और गलत-गलत। ऐसे विचारों के प्रभाव तले पल बढ़ रहे ताराशंकर के जन-मानस, प्रकृति, समाज और परिवार के प्रभाव आध्यत्मिकता तथा ईश्वर में विश्वास ने इनके विचारों का गठन किया और इनके सोचने-विचारने के ढंग को परिपक्व बनाया।
इनकी अधिकांश महत्त्वपूर्ण रचनाएँ धरती से इस प्रकार जुड़ी है कि इन रचनाओं के पात्र क्षेत्रीय नहीं रह जाते, बल्कि पाठक को ऐसा लगता है कि स्थान और वातावरण के थोड़े से अन्तर के पश्चात वे पात्र, वातावरण तथा स्थान उसके आस-पास ही फैले हैं। इस प्रकार वह अपने पाठकों के हृदय को सहज ही जीत लेते हैं।
ताराशंकर पाठकों को सहज स्वीकार्य क्यों हो गए, इसका उत्तर मूलत: उनके विषयों के चुनाव में मिलेगा। सर्वप्रथम उन्होंने अपने महाकाव्यात्मक उपन्यासों की सफलता से यह दिखा दिया कि किसी एक व्यक्ति विशेष या परिवार पर न लिखकर एक पूरी जाति के बारे में लिखनेवाला व्यक्ति अधिक से अधिक पाठकों तक बड़ी आसानी से पहुँच सकता है। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिसकी स्वीकार्यता में बाधा आ सकती हो। यद्यपि वह निरन्तर मानव-प्रगति के बारे में लिखते रहे, लेकिन वे परम्परा के भी प्रेमी थे, उन्होंने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर बंगाल के गाँवों के बारे में खूब लिखा, जिसके कारण उन्होंने चौथे-पाँचवे दशकों के पाठकों की स्वीकृति सहज ही मिल गई।
ताराशंकर भावावेग तथा मानवचरित्रांकन के पहले नहीं तो कम-से-कम पहले सफल लेखक तो अवश्य हैं। गाँवों और ग्रामीणजनों पर लिखते हुए उन्होंने कोई जमीन नहीं तोड़ी, क्योंकि शरतचन्द्र तथा कुछ अन्य लेखक भी गाँवों के बारे में लिख चुके थे, पर शरतचन्द्र तथा अन्यों के पास ताराशंकर जैसा ज्ञान और व्यापक दृष्टि नहीं थी। उनके पास ताराशंकर-सा इतिहास बोध भी नहीं था।
ताराशंकर की सबसे बड़ी शक्ति अपने विषय का उनका प्रत्यक्ष ज्ञान था। गाँव में जन्मे एक व्यक्ति के नाते वे समझ गए थे कि शहरी अर्थतंत्र के भारी दबाव में गाँव का आर्थिक ढाँचा चरमराने लगा है। बंगाल और भारत के गाँवों के सर्वनाश की जिम्मेदारी का अगर कोई एक कारण है तो औद्योगिक क्षेत्रों का दानवीय विकास। इस तरह का एकांगी विकास हानिकारक है और वह गाँवों को तेजी से दरिद्र बना रहा है। एक कृषि-प्रधान देश में ग्रामीण अर्थ तंत्र की घोर उपेक्षा भी हो रही है, जो एक घातक भूल है। उनके उपन्यास बताते हैं कि गरीब खेतिहर मजदूरों को भूस्वामी और सूदखोर लगातार चूसते जा रहे हैं और वे रोजी-रोटी की तालाश में गाँवों से शहरों की ओर पलायन करने के लिए विवश हो रहे हैं।
पुराण, मिथक, किवदंती तथा लोक-कथा विषयक ताराशंकर का ज्ञान और उन लोगों के बारे में उनकी जानकारी, जिन पर उन्होंने लिखा, उनके लेखन में विशेष सहायक सिद्ध हुई। उनके पात्र हमारे आज के समाज के जीते-जागते लोग हैं। उनकी कलात्मक सफलता का रहस्य भी यही था। उन्होंने कहानी कहने का जो सीधा सरल ढंग अपनाया, उससे भी उन्हें सहायता मिली। वे नाटकीयता, विचित्रता और मानव-मन के रहस्यमय रूपों के प्रति आकृष्ट थे और उन्होंने मुख्यत: अपनी किस्सागोई के आकर्षण में पाठकों को बाँधा।
पाठक-प्रथमत: उनके उपन्यास पठनीयता के कारण पढ़ते हैं बाद में उनमें छिपी गहराइयों तथा विस्तृत आयामों को भी खोजते हैं। पाठक उनसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि कथा-वस्तु में वर्णित लोगों के अस्तित्व से जैसे वे अपने आपको परिचित पाते हैं।
हमारे ग्रामीण लोग निरक्षर होते हुए भी रोजमर्रा की बोलचाल में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का सहज प्रयोग करते हैं। उनकी समृद्ध शब्दावली में महाकाव्यों, पुराकथाओं और पुराणों की उस समृद्ध विरासत की छाप मिलती है, जिसमें वे पले और बड़े हुए हैं। ताराशंकर भारत के ऐसे पहले लेखक थे, जिसने सामान्य लोगों के अपने शब्दों और मुहावरों से युक्त जीवंत और भाषा का सफल प्रयोग किया है।
ताराशंकर ने अपने कई उपन्यासों में स्थानीय बोली का प्रयोग किया है, जो बीरभूमि की बोली से भिन्न है। इस तरह ताराशंकर ने एक बड़ी समस्या का समाधान सुझाया है, जिसकी भारतीय लेखक नितान्त उपेक्षा करते रहे हैं। बंगाल में प्राचीन काल में ही किसान, बुनकर, मछुआरे-बढ़ई, कुम्हार और अन्य गैर औद्योगिक मजदूर अपने काम के सिलसिले में अपनी-अपनी शब्दावली अपनाते हैं। किसी बोली में लिख लेना मात्र काफी नहीं होता, वरन् सम्बद्ध लोग दैनिक जीवन में जिस शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उनका उपयोग ही सटीक तथा जीवंत होता है।
ताराशंकर ने इस बोली का प्रयोग मात्र कुछ विशिष्ट प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं किया है। उन्होंने इसका प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि वह उस समुदाय विशेष के बारे में लिख रहे थे। अत: उस समुदाय बोली का प्रयोग आवश्यक था। इससे उपन्यास की संरचना अधिक साफ-सुथरी और प्रभावशाली हो जाती है।
सफल कथाकार की तरह ताराशंकर ने भी नितान्त वस्तुपरकता और तटस्थता के साथ कहानियाँ लिखीं जैसा कि उनके उपन्यासों से भी प्रकट है और इस तरह उन्होंने एक खास तरह का इतिहास बोध पाठकों को दिया। गाँवों में रहनेवाली कहार जाति के बारे में उनके उपन्यास पढ़ते समय लगता है मानो कोई इतिहास अध्येता किसी जाति के उत्थान-पतन, नैस्तर और पुनरुस्थान का इतिहास कह रहा हो। वह जिस तरह के उपन्यास लिखते थे, उनमें यह भी एक प्रकार की कलात्मक परिपूर्णता का द्योतक है।
अन्य लोग शैलीगत ढंग से व्यवस्थित करके अपने साहित्यिक विचार व्यक्ति करते हैं। ताराशंकर के संबंध में उनके लेखन पर भावना हावी रहती है। उनके साहित्य विचार नाटकीय ढंग से व्यवस्थित होकर निकलते हैं, विशेषकर उनकी कहानियों और उपन्यासों में। दुर्भाग्य से उनकी भाषा तथा कहानी कहने का ढंग, जो ग्रामीण विषयों के लिए अत्यन्त उपयुक्त है, अन्य विषयों में भटक जाने पर गम्भीर पाठक को प्रभावित नहीं कर पाता।
अकाल युद्ध, साम्प्रदायिक दंगा, भारत-विभाजन जैसे सामयिक विषयों पर उन्होंने लिखा। उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि पात्रों की रचना भी की है। कहीं-कहीं ताराशंकर की भाषा समय के साथ नहीं चली, हालांकि उनका चित्रण समय के साथ ही चलता है। फिर भी उनकी उपलब्धियाँ प्रभावी हैं। इस नाते उनके उपन्यास तथा कहानियाँ चिर स्मरणीय हैं। वह उन थोड़े से सच्चे भारतीय लेखकों में से हैं, जिन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारत का पुनराविष्कार किया है।
‘‘दो आँखें’’ भारतीय साहित्य के निर्माता श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय के बंग्ला उपन्यास संकेत जिसकी रचना उन्होंने सन् 1964 में की का हिन्दी अनुवाद किया। ‘‘दो आंखें’’ उपन्यास में जीवन की तालाश और पहचान में भटकने वाले एक एकाकी यात्री की मार्मिक कहानी है। बंगाल के गाँवों की गतिविधि, विकास और इच्छा आकांक्षाओं को व्यक्त करके यह उपन्यास सम्पूर्ण देश की कहानी कह देता है।
‘‘दो आँखें’’ की कहानी को पढ़कर इस सत्य को बल मिलता है कि भारत एक कृषि प्रधान और गाँवों का देश है और इसका भावी रूप वैसा ही बनेगा। जैसा आज के विपन्न परन्तु विकासशील गाँव चाहते हैं। श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय की लेखन शैली की परम्परा को निभाते हुए यह उपन्यास पाठक को अपनी कहानी के लिए भरपूर रोचकता और स्फूर्ति प्रदान करता है।
ताराशंकर जब केवल आठ वर्ष के थे, तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माँ पटना के एक शिक्षित परिवार की थीं। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त गृहस्थी को इनकी माँ ने योग्यतापूर्वक बड़ी शालीनता से चलाया। इसका ताराशंकर पर बहुत अच्छा असर हुआ। वे अपनी माँ से वैसे प्रभावित थे। इधर ताराशंकर की बुआ अपने पति और पुत्र को एक साथ एक ही दिन खो देने की हृदय विदारक घटना के बाद अपने भाई के पास ही रहने लगी थीं। वे भी ताराशंकर को बहुत चाहती थीं। सही और गलत की गहरी सूझ-समझ और मूल्यों के उच्चतम मानदण्डों को अपनाने वाली परिवार की इन दोनों महिलाओं ने ताराशंकर के जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ताराशंकर के परिवार में धर्मपरायणता और परमात्मा में गहरा विश्वास था। अच्छाई और बुराई, सही और गलत को अच्छी तरह देखा और परखा जाता था। यहाँ अच्छाई-अच्छाई थी और बुराई-बुराई; सही-सही था और गलत-गलत। ऐसे विचारों के प्रभाव तले पल बढ़ रहे ताराशंकर के जन-मानस, प्रकृति, समाज और परिवार के प्रभाव आध्यत्मिकता तथा ईश्वर में विश्वास ने इनके विचारों का गठन किया और इनके सोचने-विचारने के ढंग को परिपक्व बनाया।
इनकी अधिकांश महत्त्वपूर्ण रचनाएँ धरती से इस प्रकार जुड़ी है कि इन रचनाओं के पात्र क्षेत्रीय नहीं रह जाते, बल्कि पाठक को ऐसा लगता है कि स्थान और वातावरण के थोड़े से अन्तर के पश्चात वे पात्र, वातावरण तथा स्थान उसके आस-पास ही फैले हैं। इस प्रकार वह अपने पाठकों के हृदय को सहज ही जीत लेते हैं।
ताराशंकर पाठकों को सहज स्वीकार्य क्यों हो गए, इसका उत्तर मूलत: उनके विषयों के चुनाव में मिलेगा। सर्वप्रथम उन्होंने अपने महाकाव्यात्मक उपन्यासों की सफलता से यह दिखा दिया कि किसी एक व्यक्ति विशेष या परिवार पर न लिखकर एक पूरी जाति के बारे में लिखनेवाला व्यक्ति अधिक से अधिक पाठकों तक बड़ी आसानी से पहुँच सकता है। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिसकी स्वीकार्यता में बाधा आ सकती हो। यद्यपि वह निरन्तर मानव-प्रगति के बारे में लिखते रहे, लेकिन वे परम्परा के भी प्रेमी थे, उन्होंने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर बंगाल के गाँवों के बारे में खूब लिखा, जिसके कारण उन्होंने चौथे-पाँचवे दशकों के पाठकों की स्वीकृति सहज ही मिल गई।
ताराशंकर भावावेग तथा मानवचरित्रांकन के पहले नहीं तो कम-से-कम पहले सफल लेखक तो अवश्य हैं। गाँवों और ग्रामीणजनों पर लिखते हुए उन्होंने कोई जमीन नहीं तोड़ी, क्योंकि शरतचन्द्र तथा कुछ अन्य लेखक भी गाँवों के बारे में लिख चुके थे, पर शरतचन्द्र तथा अन्यों के पास ताराशंकर जैसा ज्ञान और व्यापक दृष्टि नहीं थी। उनके पास ताराशंकर-सा इतिहास बोध भी नहीं था।
ताराशंकर की सबसे बड़ी शक्ति अपने विषय का उनका प्रत्यक्ष ज्ञान था। गाँव में जन्मे एक व्यक्ति के नाते वे समझ गए थे कि शहरी अर्थतंत्र के भारी दबाव में गाँव का आर्थिक ढाँचा चरमराने लगा है। बंगाल और भारत के गाँवों के सर्वनाश की जिम्मेदारी का अगर कोई एक कारण है तो औद्योगिक क्षेत्रों का दानवीय विकास। इस तरह का एकांगी विकास हानिकारक है और वह गाँवों को तेजी से दरिद्र बना रहा है। एक कृषि-प्रधान देश में ग्रामीण अर्थ तंत्र की घोर उपेक्षा भी हो रही है, जो एक घातक भूल है। उनके उपन्यास बताते हैं कि गरीब खेतिहर मजदूरों को भूस्वामी और सूदखोर लगातार चूसते जा रहे हैं और वे रोजी-रोटी की तालाश में गाँवों से शहरों की ओर पलायन करने के लिए विवश हो रहे हैं।
पुराण, मिथक, किवदंती तथा लोक-कथा विषयक ताराशंकर का ज्ञान और उन लोगों के बारे में उनकी जानकारी, जिन पर उन्होंने लिखा, उनके लेखन में विशेष सहायक सिद्ध हुई। उनके पात्र हमारे आज के समाज के जीते-जागते लोग हैं। उनकी कलात्मक सफलता का रहस्य भी यही था। उन्होंने कहानी कहने का जो सीधा सरल ढंग अपनाया, उससे भी उन्हें सहायता मिली। वे नाटकीयता, विचित्रता और मानव-मन के रहस्यमय रूपों के प्रति आकृष्ट थे और उन्होंने मुख्यत: अपनी किस्सागोई के आकर्षण में पाठकों को बाँधा।
पाठक-प्रथमत: उनके उपन्यास पठनीयता के कारण पढ़ते हैं बाद में उनमें छिपी गहराइयों तथा विस्तृत आयामों को भी खोजते हैं। पाठक उनसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि कथा-वस्तु में वर्णित लोगों के अस्तित्व से जैसे वे अपने आपको परिचित पाते हैं।
हमारे ग्रामीण लोग निरक्षर होते हुए भी रोजमर्रा की बोलचाल में संस्कृतनिष्ठ शब्दों का सहज प्रयोग करते हैं। उनकी समृद्ध शब्दावली में महाकाव्यों, पुराकथाओं और पुराणों की उस समृद्ध विरासत की छाप मिलती है, जिसमें वे पले और बड़े हुए हैं। ताराशंकर भारत के ऐसे पहले लेखक थे, जिसने सामान्य लोगों के अपने शब्दों और मुहावरों से युक्त जीवंत और भाषा का सफल प्रयोग किया है।
ताराशंकर ने अपने कई उपन्यासों में स्थानीय बोली का प्रयोग किया है, जो बीरभूमि की बोली से भिन्न है। इस तरह ताराशंकर ने एक बड़ी समस्या का समाधान सुझाया है, जिसकी भारतीय लेखक नितान्त उपेक्षा करते रहे हैं। बंगाल में प्राचीन काल में ही किसान, बुनकर, मछुआरे-बढ़ई, कुम्हार और अन्य गैर औद्योगिक मजदूर अपने काम के सिलसिले में अपनी-अपनी शब्दावली अपनाते हैं। किसी बोली में लिख लेना मात्र काफी नहीं होता, वरन् सम्बद्ध लोग दैनिक जीवन में जिस शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उनका उपयोग ही सटीक तथा जीवंत होता है।
ताराशंकर ने इस बोली का प्रयोग मात्र कुछ विशिष्ट प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं किया है। उन्होंने इसका प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि वह उस समुदाय विशेष के बारे में लिख रहे थे। अत: उस समुदाय बोली का प्रयोग आवश्यक था। इससे उपन्यास की संरचना अधिक साफ-सुथरी और प्रभावशाली हो जाती है।
सफल कथाकार की तरह ताराशंकर ने भी नितान्त वस्तुपरकता और तटस्थता के साथ कहानियाँ लिखीं जैसा कि उनके उपन्यासों से भी प्रकट है और इस तरह उन्होंने एक खास तरह का इतिहास बोध पाठकों को दिया। गाँवों में रहनेवाली कहार जाति के बारे में उनके उपन्यास पढ़ते समय लगता है मानो कोई इतिहास अध्येता किसी जाति के उत्थान-पतन, नैस्तर और पुनरुस्थान का इतिहास कह रहा हो। वह जिस तरह के उपन्यास लिखते थे, उनमें यह भी एक प्रकार की कलात्मक परिपूर्णता का द्योतक है।
अन्य लोग शैलीगत ढंग से व्यवस्थित करके अपने साहित्यिक विचार व्यक्ति करते हैं। ताराशंकर के संबंध में उनके लेखन पर भावना हावी रहती है। उनके साहित्य विचार नाटकीय ढंग से व्यवस्थित होकर निकलते हैं, विशेषकर उनकी कहानियों और उपन्यासों में। दुर्भाग्य से उनकी भाषा तथा कहानी कहने का ढंग, जो ग्रामीण विषयों के लिए अत्यन्त उपयुक्त है, अन्य विषयों में भटक जाने पर गम्भीर पाठक को प्रभावित नहीं कर पाता।
अकाल युद्ध, साम्प्रदायिक दंगा, भारत-विभाजन जैसे सामयिक विषयों पर उन्होंने लिखा। उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि पात्रों की रचना भी की है। कहीं-कहीं ताराशंकर की भाषा समय के साथ नहीं चली, हालांकि उनका चित्रण समय के साथ ही चलता है। फिर भी उनकी उपलब्धियाँ प्रभावी हैं। इस नाते उनके उपन्यास तथा कहानियाँ चिर स्मरणीय हैं। वह उन थोड़े से सच्चे भारतीय लेखकों में से हैं, जिन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारत का पुनराविष्कार किया है।
‘‘दो आँखें’’ भारतीय साहित्य के निर्माता श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय के बंग्ला उपन्यास संकेत जिसकी रचना उन्होंने सन् 1964 में की का हिन्दी अनुवाद किया। ‘‘दो आंखें’’ उपन्यास में जीवन की तालाश और पहचान में भटकने वाले एक एकाकी यात्री की मार्मिक कहानी है। बंगाल के गाँवों की गतिविधि, विकास और इच्छा आकांक्षाओं को व्यक्त करके यह उपन्यास सम्पूर्ण देश की कहानी कह देता है।
‘‘दो आँखें’’ की कहानी को पढ़कर इस सत्य को बल मिलता है कि भारत एक कृषि प्रधान और गाँवों का देश है और इसका भावी रूप वैसा ही बनेगा। जैसा आज के विपन्न परन्तु विकासशील गाँव चाहते हैं। श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय की लेखन शैली की परम्परा को निभाते हुए यह उपन्यास पाठक को अपनी कहानी के लिए भरपूर रोचकता और स्फूर्ति प्रदान करता है।
दो आँखें
एक
कहानी के नाते यह कहानी मैं ही यानि उमानाथ मुखोपाध्याय कह रहा हूं। यह
उपन्यास है कि गद्य या कि कहानी, नहीं कह सकता। लेकिन मैंने नाम इसका
रक्खा- सिगनल-संकेत। यह नाम मुझे उसी ने बताया है, जिनकी कथा कह रहा हूं।
परिचय के आरम्भ में ही जिस चीज पर नज़र पड़ी, वह थी उसकी दो आँखें। अड़हूल
के फूल जैसी सुर्ख ! नहीं, लहू के दो ढेले हों जैसे। उनमें दो काली
पुतलियों का आभास-भर जग रहा था।
गाँव का मेरा घर कच्चा है। मिट्टी की दीवार, फूंस की छत। लेकिन देखने में सुन्दर है, किसी भी सुरुचि सम्पन्न बंगले जैसा। सामने बगीचा था जो काफी सुन्दर था। लोग ठिठक जाते हैं, देख जाते हैं। नीम के नीचे एक चबूतरा है, उसके चारों कोनों में खूटों पर पड़ी फूंस की छत देखने से किसी तपोवन या आश्रम-सी लगती है। मैं उसी नीम के नीचे बैठा था। सामने के मुख्य रास्ते से जाने वालों का तांता लगा था। सभी बन्दोबस्ती दफ्तर के कर्मचारी। ठिठकते देखते और चले जाते। उन्हीं में सिर पर अंगोछा डाले एक आदमी अन्दर आया। लंबा-सा खासे डील-डौल वाला आदमी, गोरा रंग। माथे पर अंगोछा पड़े रहने की वजह से ठीक-ठीक अंदाज नहीं लग सका। लेकिन इसमें शक नहीं कि कई दिनों से दाढ़ी नहीं बनी थीं और मूंछें थी। पैरों में कटे टायर की चप्पल। बदन पर घर की धुली हाफ कमीज, पहनावे में लाल लकीर कोर की साढ़े चार गजवाली छोटी धोती।
गाँव का मेरा घर कच्चा है। मिट्टी की दीवार, फूंस की छत। लेकिन देखने में सुन्दर है, किसी भी सुरुचि सम्पन्न बंगले जैसा। सामने बगीचा था जो काफी सुन्दर था। लोग ठिठक जाते हैं, देख जाते हैं। नीम के नीचे एक चबूतरा है, उसके चारों कोनों में खूटों पर पड़ी फूंस की छत देखने से किसी तपोवन या आश्रम-सी लगती है। मैं उसी नीम के नीचे बैठा था। सामने के मुख्य रास्ते से जाने वालों का तांता लगा था। सभी बन्दोबस्ती दफ्तर के कर्मचारी। ठिठकते देखते और चले जाते। उन्हीं में सिर पर अंगोछा डाले एक आदमी अन्दर आया। लंबा-सा खासे डील-डौल वाला आदमी, गोरा रंग। माथे पर अंगोछा पड़े रहने की वजह से ठीक-ठीक अंदाज नहीं लग सका। लेकिन इसमें शक नहीं कि कई दिनों से दाढ़ी नहीं बनी थीं और मूंछें थी। पैरों में कटे टायर की चप्पल। बदन पर घर की धुली हाफ कमीज, पहनावे में लाल लकीर कोर की साढ़े चार गजवाली छोटी धोती।
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